ग्रामीण विकास

भोजन की बर्बादी को रोकने की दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता

डॉ. यशवंत सिंह परमार औदयानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी के खाद्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग ने पोस्ट-हार्वेस्ट इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी के अंतर्गत अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना द्वारा खाद्य हानि और बर्बादी पर जागरूकता बढ़ाने हेतु एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया। यह आयोजन “अंतर्राष्ट्रीय खाद्य हानि और बर्बादी जागरूकता दिवस” के अवसर पर किया गया।

कार्यक्रम की शुरुआत में खाद्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के विभागाध्यक्ष, डॉ. राकेश शर्मा ने छात्रों का स्वागत किया और इस दिन के महत्व पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि वैश्विक स्तर पर उत्पादित भोजन का लगभग 14% हिस्सा फसल कटाई से लेकर खुदरा बिक्री तक के चरणों में बर्बाद हो जाता है। यह भोजन उपभोक्ताओं तक पहुंचने से पहले ही नष्ट हो जाता है, जिससे खाद्य सुरक्षा और संसाधनों पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।

कार्यक्रम के मुख्य वक्ता आईसीएआर एमेरिटस प्रोफेसर, डॉ. पीसी शर्मा ने “कृषि फसलों में फसल कटाई के बाद हानि: रोकथाम और प्रबंधन” पर व्याख्यान दिया। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य 12.3 पर चर्चा की, जिसका उद्देश्य 2030 तक वैश्विक खाद्य बर्बादी को आधा करना है।

डॉ. शर्मा ने बताया कि भारत में फसल कटाई के बाद की हानि 2010 में 18% थी, जो 2022 में घटकर लगभग 15% रह गई है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि 2030 तक इस हानि को एकल अंकों में लाना आवश्यक है, ताकि खाद्य सुरक्षा और पोषण को बढ़ावा दिया जा सके।

कार्यक्रम के अनुसंधान निदेशक, डॉ. संजीव चौहान ने सभी से सामाजिक आयोजनों में भोजन की बर्बादी को कम करने का आह्वान किया। उन्होंने शून्य भूख के लक्ष्य को प्राप्त करने और कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता पर जोर दिया।

डॉ. चौहान ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि भोजन की बर्बादी को कम करने से खाद्य सुरक्षा में सुधार, उत्पादन लागत में कमी और खाद्य प्रणालियों की दक्षता बढ़ाई जा सकती है, जिससे पर्यावरणीय स्थिरता को भी बढ़ावा मिलता है।

चिंताजनक रूप से, हर साल लगभग 1.3 बिलियन टन भोजन बर्बाद हो जाता है, जो वैश्विक खाद्य उत्पादन का एक तिहाई हिस्सा है। इस बर्बादी की आर्थिक लागत सालाना लगभग 1 ट्रिलियन डॉलर है, और यह वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का 8-10% उत्पन्न करती है, जो जलवायु परिवर्तन को गंभीर रूप से प्रभावित करती है। इसके अलावा, भोजन के उत्पादन में उपयोग होने वाले संसाधन, जैसे दुनिया का 25% ताजा पानी और 30% कृषि भूमि, भी व्यर्थ हो जाते हैं। भोजन के अपशिष्ट से उत्पन्न मीथेन कार्बन डाइऑक्साइड से अधिक हानिकारक होती है, जो पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाती है।

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